‘मूल्य’ (कीमत) शब्द से हम भली-भाँति परिचित हैं। व्यवहार में सभी के द्वारा इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। इतना होने पर भी मूल्य को सही अर्थ में परिभाषित करना सम्भवतः बहुत कठिन है। एक साधारण व्यक्ति की दृष्टि में मूल्य का अर्थ उस राशि से है जोकि एक उत्पाद के क्रय करने पर दी जाती है। वास्तव में, ‘मूल्य’ का अर्थ समझने के लिए हमें मूल्य के साथ-साथ ‘उपयोगिता’ शब्द के अर्थ को भी समझना आवश्यक है। ‘उपयोगिता’ वस्तु की विशेषता को कहते हैं जो उसे आवश्यकता सन्तुष्टि के योग्य बनाती है। दूसरी ओर, उत्पाद विनिमय द्वारा जितने उत्पादों को आकर्षित करने या प्राप्त करने की शक्ति रखता है, उसे परिमाणात्मक रूप में प्रकट करना ही उस उत्पाद का मूल्य कहलाता है। उदाहरण के लिए, हम कह सकते हैं कि एक टेलीविजन सेट का मूल्य 7 रेडियो सेट या 10 साइकिल या 3 कूलर के बराबर होता है। आधुनिक समय में हमारी अर्थव्यवस्था काफी विकास कर चुकी है तथा आवश्यकताएँ काफी बढ़ चुकी है, अतः अदल-बदल व्यवस्था के स्थान पर मुद्रा को मूल्य का सामान्य परिचायक के रूप में प्रयोग किया जाता है। अतः वस्तु के मौद्रिक मूल्य को दर्शाने के लिए ‘मूल्य’ या ‘कीमत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।
मूल्य या कीमत निर्धारण से आशय (Meaning of Price Determination)
सामान्य शब्दों में किसी वस्तु या सेवा के बदले में क्रेता या उपभोक्ता द्वारा जो धन दिया जाता है वह कीमत कहलाता है। बिना कीमत के समाज में कोई विपणन नहीं होता है। व्यवस्था में कीमत निर्धारण बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि कीमत माँग व पूर्ति दोनों को ही प्रभावित करता है। यदि कीमत अधिक होती है तो उसकी माँग कम होती है लेकिन, यदि कीमत कम होती है तो उसकी माँग अधिक होती है। इसी प्रकार पूर्ति भी कीमत से प्रभावित होती है। कभी-कभी यह पाया जाता है. कि वस्तुओं में भिन्नता उत्पन्न करके ऊँची कीमत प्राप्त की जा सकती है जो वस्तु के टिकाऊपन एवं प्रतिष्ठा छवि के परिचायक होते हैं। कीमत सम्बन्धी निर्णय विपणन प्रबन्धक का एक महत्वपूर्ण कार्य है। अतः 5 विपणन प्रबन्धक को कीमत सम्बन्धी निर्णय लेते समय उन सभी पक्षों का ज्ञान होता चाहिए जो कि वस्तु से सम्बन्धित होते हैं जिससे कि उचित कीमत निश्चित की जा सके। कीमत निर्धारण में उद्योग, समाज, कानून आदि बहुत ही महत्वपूर्ण योग देते हैं। किसी भी वस्तु की कीमत निर्धारण करना कोई सरल कार्य नहीं है। कीमत से सम्बन्धित विभिन्न बातों का अर्थात् वस्तु की उत्पादन लागत, • इच्छित लाभ, माँग व पूर्ति प्रतिस्पर्द्धा, उपभोक्ता व्यवहार आदि पर विचार करके उचित कीमत निश्चित करने का नाम ही कीमत निर्धारण है और कीमत निर्धारण के बारे में अन्तिम निर्णय लेना ही कीमत निर्णय कहलाता है।
मूल्य या कीमत निर्णय के उद्देश्य (Objectives of Price Decision)
कोई फर्म कीमत निर्णय या कीमत निर्धारण का प्रयोग निम्न उद्देश्यों के लिए कर सकती है-
(1) कीमत स्थिरता ( Price Stability)- कीमत नीति में वस्तु की कीमत का निर्धारण इस प्रकार किया जाता है जिससे कि उसकी कीमतों में स्थिरता आये एवं ग्राहकों और उपभोक्ताओं का विश्वास प्राप्त कर सके। संस्था की ख्याति बनायी जा सके। किसी वस्तु की कीमतों में स्थिरता तभी लायी जा सकती है, जबकि कीमत निर्णय लेते समय दीर्घकाल और अल्पकालीन तत्वों पर भली-भाँति विचार किया जाये।
(2) लाभ अधिकतम करना (Maximise the Profit)- प्रत्येक संस्था का प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है। अधिकतम लाभ कमाने का लक्ष्य कीमत नीति पर निर्भर करता है। अतः प्रत्येक संस्था अपनी कीमत नीति ऐसी निर्धारित करती है जिससे अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके। इस सम्बन्ध में स्मरणीय है कि अल्पकाल में यदि ग्राहकों का शोषण करके लाभ कमाया जाये तो यह उचित नहीं है। अतः संस्था का उद्देश्य दीर्घकालीन लाभ कमाना होता है।
(3) ग्राहकों की संख्या को अधिकाधिक करना (Maximising Number of Customers) – मूल्य निर्धारण का उद्देश्य ग्राहकों की संख्या बढ़ाकर विक्रय वृद्धि करना भी हो सकता है। प्रायः नयी संस्थाएँ ग्राहकों की संख्या बढ़ाकर अपना विक्रय बढ़ाती है। कभी-कभी पुरानी संस्थाएँ भी हक वृद्धि का अभियान चलाकर विक्रय वृद्धि करने का प्रयास करती हैं।
(4) फर्म का दीर्घकालीन कल्याण (Long-run Welfare of the Firm)-फर्म को अपनी कीमत का निर्धारण इस प्रकार करना चाहिए जिससे फर्म का दीर्घकालीन कल्याण हो। उस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कीमत नीति इस प्रकार निर्धारित करनी चाहिए जिससे कि सम्भावित प्रतियोगी व्यवसाय में प्रवेश न कर सके और संस्था मौजूद प्रतिस्पद्धियों में सफलता प्राप्त कर ले।
(5) प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना (Meeting Competition)-संस्था को प्रतिस्पर्द्धात्मक स्थिति को ध्यान में रखकर ही कीमत का निर्धारण करना चाहिए ताकि संस्था प्रतिस्पर्द्धात्मक स्थिति में भी पूर्ण सफलता प्राप्त कर सके।
(6) स्थिर लाभ सीमा (Stable Profit Margin)- एक संस्था अपनी कीमत भीति इस प्रकार निर्धारित कर सकती है जिससे संस्था को वस्तु की उत्पादन लागत पर सदैव एक निश्चित दर से लाभ प्राप्त होता रहे।
(7) देय क्षमता के अनुसार कीमत (Price According to Ability to Pay)-कुछ संस्थाएँ ऐसी कीमत नीति अपनाती है जिससे कि ग्राहकों की भुगतान क्षमता के अनुसार कीमत वसूल की जा सके अर्थात् अधिक आय वाले व्यक्तियों से अधिक और कम आय वाले व्यक्तियों से कम कीमत वसूल की जा सके। प्रायः डॉक्टर, वकील, सरकार, एकाधिकारी द्वारा ऐसी जीति अपनायी जाती है।
(8) विक्रय मात्रा को अधिकाधिक करना (Maximising Sales Volume)-मूल्य निर्धारण का उद्देश्य विक्रय की मात्रा को अधिकाधिक करना भी हो सकता है। ऐसा उद्देश्य रखने से विक्रय की मात्रा को बढ़ाया ही जा सकता है। साथ ही सम्भावित प्रतिस्पर्धी संस्थाओं को बाजार में प्रवेश करने से रोका भी जा सकता है। ऐसे उद्देश्य को प्रायः विद्यमान विक्रय में एक निश्चित अवधि में एक निश्चित प्रतिशत की वृद्धि के रूप में प्रकट किया जाता है।
(9) विक्रय पर लक्षित लाभ को प्राप्त करना (Achieving Target Return on Sales) मूल्य निर्धारण का उद्देश्य विक्रय पर पूर्व निर्धारित लाभ लक्ष्य को प्राप्त करना हो सकता है। यह लाभ विक्रय राशि का निश्चित प्रतिशत या प्रति इकाई हो सकता है। उदाहरणार्थ, विक्रय पर 20 प्रतिशत लाभ या 20 रुपए प्रति इकाई लाभ अर्जित करने का लक्ष्य निर्धारित किया जा सकता है। अतः मूल्य निर्धारित करने के लिए उत्पाद की लागत में इतनी ही प्रतिशत राशि या निश्चित राशि जोड़ दी जाती है। ऐसी जीति बहुत अधिक प्रचलित है।
(10) विनियोग पर लक्षित लाभ को प्राप्त करना (Achieving Target Return on Investment)-विक्रय पर लाभ लक्ष्य की तरह विनियोग पर लाभ लक्ष्य निर्धारित किया जा सकता है। यह संस्था में कुल विनियोग की गई राशि के निश्चित प्रतिशत के रूप में हो सकता है। उदाहरणार्थ, कुल विनियोग की गई राशि पर 20 प्रतिशत लाभ अर्जित करने का लक्ष्य ऐसी नीति केवल उद्योग की शीर्षस्थ संस्थाओं को ही अपनायी जाती है।
कीमत/ मूल्य निर्धारित करते समय ध्यान देने योग्य बातें (Points to be Remembered in the Price Determination)
किसी वस्तु की कीमत निर्धारित करते समय निम्नलिखित तत्वों पर ध्यान देना चाहिए
– (1) उत्पाद का जीवन-चक्र (Product of Life-Cycle)-वस्तु के जीवन चक्र अवस्था पर ही कीमत निर्धारण निर्भर करता है। वस्तु के परिचय की अवस्था में यह फर्म की इच्छा पर निर्भर करता है कि वस्तु की ऊंची कीमत या नीची कीमत निर्धारित करे, क्योंकि उस समय बाजार में प्रतियोगिता का अभाव होता है। वस्तु की आगे की अन्य दशाओं में प्रतियोगियों का बाजार में प्रवेश हो जाता है और इसके फलस्वरूप फर्म की कीमत निर्धारण की स्थिति संकुचित हो जाती है। इन अवस्थाओं में बाजार विस्तार के लिए कीमतों में कमी करनी पड़ती है।
(2) व्यवसाय का उद्देश्य (Objectives of Business)-एक व्यावसायिक उपक्रम की स्थापना निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए की जाती है। ये उद्देश्य होते हैं-विनियोजित धन पर उचित दर से आय प्राप्त करना, प्रतियोगी बाजार में अधिक बाजार प्राप्त करना आदि। अतः प्रबन्धक को इन सभी उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ऐसी मूल्य नीति निर्धारित करनी चहिए जिससे कि आसानी से समस्त उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके।
(3) उत्पाद विभक्तिकरण (Product Differentiation) वस्तु का बाजार उसकी कीमत के साथ-साथ विभिन्नताओं पर भी निर्भर करता है। अतः ऐसी स्थिति में उत्पाद के रंग, रूप, आकार, वैकल्पिक प्रयोग आदि में विभिन्नताएँ उत्पन्न कर दी जाती है, जिससे कि अधिक-से-अधिक उपभोक्ताओं को आकर्षित किया जा सके। ऐसे उपभोक्ताओं जिनके लिए कीमत अधिक महत्वपूर्ण क्रम निर्धारण तत्व नहीं होता है, वे वस्तु की कीमत के स्थान पर फैशन, स्टाइल, गुण, टिकाऊपन, उत्पाद सेवा आदि को प्राथमिकता देते हैं। ऐसी दशा में वस्तु की अपेक्षाकृत अधिक कीमत निर्धारित की जाती है।
(4) उत्पाद की लागत (Cost of Product)- कीमतों व लागतों में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है इसलिए कीमत निर्धारित करते समय उत्पाद की लागतों पर उचित ध्यान देना चाहिए। विपणन के क्षेत्र में कीमत ही लागतों का निर्धारण करती है। विपणनकर्ता को बाजार की माँग, प्रकृति, प्रतियोगियों की स्थिति, वस्तु विभिन्नता, संवर्द्धन वितरण व्यवस्था आदि के आधार पर कीमत का अनुमान लगाना चाहिए उसे कीमत के अनुरूप ही विभिन्न लागतों को समन्वित करना चाहिए। अतः कीमत को वस्तु की लागत भी प्रभावित करती है।
(5) माँग की कीमत लोच (Price Elasticity of the Demand) – मूल्य निर्धारित करते समय उत्पाद लोच का भी ध्यान रखा जाता है। कीमत की लोच से आशय कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप उस उत्पाद में बिक्री से होने वाला परिवर्तन है। नमक, मिट्टी का तेल की माँग बेलोचदार है, जबकि रेडियो, कलर टी.वी. आदि की माँग लोचदार होती है। अतः लोच अधिक होने के कारण कम मूल्य निर्धारित करना चाहिए।
(6) वितरण नीति (Distribution Policy) – वितरण सम्बन्धी नीति का भी मूल्य निर्धारण पर प्रभाव पड़ता है। यदि वितरण नीति के अन्तर्गत अधिक मध्यस्थों को एकत्रित किया जाता है तो ये विज्ञापन, वाहन आदि में अधिक व्यय करेंगे तो वस्तु का मूल्य स्वयं बढ़ जायेगा। इसके विपरीत वितरण मार्ग छोटा है तो वस्तु का मूल्य कम निर्धारित हो सकता है।
(7) आर्थिक वातावरण (Economic Environment)- कीमत निर्धारण करते समय आर्थिक वातावरण का भी ध्यान रखा जाना चाहिए, क्योंकि आर्थिक मन्दी में वस्तु के मूल्य कम रखने पड़ते हैं तथा तेजी काल में मूल्य अधिक रखे जा सकते हैं।
(8) उपभोक्ताओं का क्रय प्रारूप (Consumer’s Buying Patterns) कीमत निर्धारण ने उपभोक्ताओं की वस्तु क्रय करने की आदत व तरीकों का भी प्रभाव पड़ता है। यदि किसी वस्तु को उपभोक्ता द्वारा बार-बार क्रय किया जाता है तो ऐसी वस्तु को निम्न लाभ पर बेचा जाता है और इसके विपरीत जो वस्तुएँ एक ही बार खरीदी जाती है उन वस्तुओं को अधिक लाभ पर बेचा जाता है।
(9) प्रतिस्पर्द्धियों की कीमतें (Competitors’s Prices)-अधिकांश उत्पादक अपनी प्रतिस्पर्द्धा में आने वाले अन्य उत्पादकों की वस्तु को देखते हुए कीमत को निश्चित करते हैं। यदि उनकी वस्तु की किस्म अच्छी है या संस्था की ख्याति अच्छी है तो वे अपनी वस्तु की कीमत भी अधिक निर्धारित कर सकते हैं। इसके विपरीत यदि विपणनकर्ता चाहे तो वह अपनी कीमतों को कम भी निर्धारित कर सकता है अन्य प्रतिस्पर्धी कीमतों से। अतः अधिकांश उत्पादक अन्य निर्माताओं की वस्तु को देखते हुए अपनी वस्तु की कीमत निर्धारित करते हैं।
(10) सरकारी नियंत्रण (Government Control)-मूल्य का निर्धारण करते समय सरकारी नियन्त्रण को भी ध्यान में रखना चाहिए। यदि किसी उत्पाद के मूल्यों में असाधारण वृद्धि होती है या उस वस्तु की पूर्ति नहीं होती है तो ऐसे उत्पाद का सम्पूर्ण उत्पादन एवं वितरण कार्य सरकार अपने हाथ में लेकर स्वयं उसका मूल्य निर्धारित करती है। यही कारण है कि अधिकांश उत्पादक अपनी वस्तुओं की अधिक कीमत निर्धारित नहीं करते हैं।