विभक्तिकरण एवं विपणन रणनीति (Segmentation and Marketing Strategy)
किसी वस्तु के सभी क्रेता एक से नहीं होते हैं इसलिए एक विक्रेता अपनी विपणन रणनीति में अन्तर कर सकता है। यह अन्तर बाजार खण्ड के आधार पर हो सकता है। इस सम्बन्ध में निम्न तीन में से कोई भी रीति अपनायी जा सकती है
(1) भेदभावहीन विपणन रीति-नीति-इस नीति को अपनाने वाली संस्थाएँ विभिन्न ग्राहकों में अन्तर नहीं करती हैं और अपना एक ही विपणन कार्यक्रम अपनाती है। इसका अर्थ यह है कि निर्माता के द्वारा केवल एक ही प्रकार की वस्तु का निर्माण एवं विक्रय किया जाता है। इसमें इस बात का अधिक ध्यान रखा जाता है कि ग्राहकों में किन-किन बातों में समानताएँ पायी जाती हैं। इसीलिए विज्ञापन अपीलें वैसी ही बनायी जाती हैं जिनसे अधिकांश ग्राहकों की समानता का पता चलता हो।
उदाहरण के लिए, कोका-कोला (पेय पदार्थ) बनाने वाली कम्पनी कई वर्षों से एक ही पेय पदार्थ बना रही है जोकि एक ही आकार वाली बोतल व स्वाद में मिलता है। इस प्रकार की रीति-नीति अपना में संस्था विभिन्न माँग वक्रॉ पर ध्यान न देकर सम्पूर्ण बाजार को एक ही रूप में मानकर चलती हैं। इसमें ग्राहकों की समान विशेषताओं पर ध्यान दिया जाता है और वस्तु ऐसी बनायी जाती है कि सभी ग्राहकों को अच्छी लगे। भारत में अधिकांश निर्माता इसी नीति को अपनाते हैं क्योंकि ऐसा करने से
(i) उत्पादन लागत कम रहती है क्योंकि एक ही वस्तु का निर्माण किया जाता है। (ii) विज्ञापन लागत भी कम रहती है।
(iii) संग्रह लागत घटती है क्योंकि एक ही प्रकार की वस्तु का उत्पादन होता है उसी का विज्ञापन होता है और उसको ही कम मात्रा में संग्रहित किया जाता है।
(iv) परिवहन लागत कम रहती है।
(v) विपणन अनुसन्धान लागत भी कम रहती है।
(iv) साथ ही संस्था के सामान्य प्रबन्ध व्यय भी कम रहते हैं।
निष्कर्ष- एक निर्माता प्रारम्भ में इस नीति को अपनाता है लेकिन जैसे-जैसे प्रतियोगिता बढ़ती जाती है निर्माता इस नीति से हटने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
(2) भेदभावपूर्ण विपणन रीति-नीति इस रीति-नीति को अपनाने वाली संस्थाएँ एक वस्तु का निर्माण नहीं करतीं बल्कि इस वस्तु के विभिन्न बाजार विभक्तों को ध्यान में रखकर कई वस्तुओं का निर्माण करती हैं और कई विपणन रीति नीतियाँ अपनाती हैं। ऐसा करने का उद्देश्य अधिक बिक्री करना होता है जिससे लाभ अधिक हो सके तथा प्रत्येक प्रकार के बाजार तक पहुँच सके। इसका अर्थ यह है कि ऐसी नीति अपनाकर सभी प्रकार के ग्राहकों तक पहुँचा जा सकता है। भारत में इस प्रकार की नीति कुछ संस्थाएँ अपनाती हैं जैसे-गोल्डन टुबाको कम्पनी लिमिटेड विभिन्न नामों से सिगरेट बनाती है व बेचती हैं, जैसे- पनामा, न्यू डील, गोल्ड फ्लेक, ताज, सैनिक, गेलॉर्ड, ताजमहल, डायमण्ड, स्क्वायर, टार्जेट। इसी प्रकार हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड नामक कम्पनी भी कई नामों से नहाने के साबुन बनाती है व बेचती हैं, जैसे-लक्स, लाइफबॉय, रेक्सोना, लिरिल आदि।
निष्कर्ष इस प्रकार की नीति अपनाने में कुल बिक्री बढ़ती है और ग्राहकों को अपने इच्छा के अनुरूप वस्तु मिल जाती है लेकिन इससे प्रशासनिक लागत, उत्पादन लागत, संग्रह लागत, प्रवर्तन लागत व विक्रय लागत में वृद्धि होती है। यह रीति-नीति ग्राहक अभिमुखी है लेकिन यह सदा ही लाभ अभिमुखी हो ऐसा सम्भव नहीं है। इसका लाभ अभिमुखी होना। इस बात पर निर्भर करता है कि लागतों की तुलना में बिक्री किस अनुपात में बढ़ती है।
(3) केन्द्रित विपणन रीति-नीति-वे निर्माता जो सभी बाजारों में एक साथ पहुँचना पसन्द नहीं करते, वे इस केन्द्रित विपणन रीति नीति को अपनाते हैं। इसमें बाजार के किसी एक भाग पर सारी विपणन शक्ति केन्द्रित कर दी जाती है और उसी भाग के ग्राहकों को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता है। इस नीति को साधारणतया एक निर्माता द्वारा प्रारम्भ में ही अपनाया जाता है। यह नीति उन संस्थाओं के द्वारा भी अपनायी जा सकती है जिनके अन्तर्गत आर्थिक साधन सीमित होते हैं। इसी प्रकार यह नीति उस समय भी अपनायी जा सकती है जबकि वस्तु की विशेषताओं में काफी अन्तर हो या ग्राहकों के व्यवहारों में काफी अन्तर पाया जाता हो। भारत में इस प्रकार की बहुत-सी संस्थाएँ हैं जो इस नीति को अपनाती है। उदाहरण के लिए,
पुस्तक प्रकाशन का कार्य सभी विषयों एवं भाषाओं में किया जा सकता है लेकिन कुछ प्रकाशक किन्ही पब्लिकेशन, आगरा ने हिन्दी पाठ्यक्रम पुस्तकों के प्रकाशन में वाणिज्य व अर्थशास्त्र का क्षेत्र चुन लिया है। कही इस बाजार या विभक्तिकरण का चुनाव किसी प्रकार गलत हो गया तो संस्था का अस्तित्व ही खतरे निष्कर्ष- इस नीति को अपनाने में संस्था का भविष्य एक ही बाजार पर निर्भर रहता है। यदि में पड़ जाता है लेकिन उपयुक्त चुनाव होने पर लाभ भी अधिक होता है।