मूल्य नीति क्या है ? मूल्य नीति के उद्देश्य एवं प्रकारों को समझाइये।

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प्रत्येक व्यवसायी का प्रमुख एवं अन्तिम उद्देश्य लाभ कमाना होता है और ये लाभ तभी प्राप्त किये जा सकते हैं, जबकि उत्पाद का विक्रय मूल्य लागत से अधिक हो। अब जहाँ तक फर्म को लाभ होने का सवाल है, वह वस्तु की बिक्री की मात्रा पर निर्भर करता है और यह मात्रा (बिक्री की) वस्तु के मूल्य पर निर्भर करती है, क्योंकि अगर वस्तु का मूल्य अधिक है तो वस्तु की बिक्री की मात्रा कम हो जायेगी। इसके विपरीत, वस्तु का मूल्य कम होने पर वस्तु की बिक्री की मात्रा अधिक हो जाती है। अतः प्रत्येक व्यावसायिक फर्म या संस्था के लिए वस्तु के मूल्य का निर्धारण एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। वस्तु के मूल्य से सम्बन्धित विभिन्न बातों पर विचार करके उचित मूल्य निर्धारित करने को ही मूल्य नीति कहते हैं तथा मूल्य के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय लेना ही मूल्य निर्णय कहलाता है। कन्वर्स के अनुसार, “एक निश्चित अवधि के लिए मूल्य सम्बन्धी निर्णयों को ही मूल्य नीति कहा जाता है।” मूल्य निर्धारित करने की कोई प्रत्यक्ष या स्पष्ट नीति नहीं है। इसके अतिरिक्त समय व परिस्थितियों के परिवर्तनों के अनुसार मूल्य नीति में भी समय-समय पर आवश्यक परिवर्तन करते रहना चाहिए। एक श्रेष्ठ मूल्य नीति, प्रबन्धकों की योग्यता एवं अनुभव पर निर्भर करती है। प्रबन्धकों को मूल्य नीति नि रित करते समय इसको प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्वों पर विचार करना चाहिए।

मूल्य नीति के उद्देश्य (Objects of Pricing Policy)

एक फर्म के लिए मूल्य नीति का प्रयोग निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु किया जाता है

(1) उत्पाद का मूल्य स्थिर रखना अनेक फर्म अपने उत्पादन का मूल्य स्थिर रखती है, चाहे वस्तु की लागत सामान्य लागत से कम आये या अधिक। इस नीति से जनता में फर्म के प्रति विश्वास बढ़ जाता है परन्तु यह नीति दीर्घकाल के लिए निश्चित नहीं हो सकती, क्योंकि लागत बढ़ने की दशा में कोई भी फर्म लागत से कम कीमत पर वस्तु बेचकर लम्बे समय तक हानि नहीं उठा सकती। यह नीति तो अल्पकाल के लिए ठीक है।

(2) लाभों को अधिकतम करना- प्रत्येक संस्था का प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है। अधिकतम लाभ कमाने के लक्ष्य की सफलता कीमत नीति पर निर्भर करती है। अतः प्रत्येक संस्था अपनी ऐसी मूल्य नीति निर्धारित करती है जिससे अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके। इस सम्बन्ध में स्मरणीय है कि अल्पकाल में, यदि ग्राहकों का शोषण किया जाये और अपने लाभों को बढ़ाया जाये तो प्रारम्भ में तो ठीक ही लाभ होगा, परन्तु बाद में ग्राहकों को समझ में आ जाने पर वस्तु की बिक्री कम हो जायेगी तथा फर्म को हानि उठानी पड़ेगी। अतः संस्था का हमेशा यही प्रयत्न रहता है कि वस्तु के मूल्य इस प्रकार निर्धारित किये जायें कि संस्था को भले ही लाभ की मात्रा कम हो, परन्तु लाभ की मात्रा दीर्घकाल तक प्राप्त होती रहे।

(3) लाभ-सीमा स्थिर रखना-एक फर्म अपनी मूल्य नीति इस प्रकार अपना सकती है जिससे उसे अपनी वस्तु के उत्पादन लागत पर निश्चित दर से लम्बी अवधि तक लाभ प्राप्त हो सके।

(4) देय क्षमता के अनुसार मूल्य-कुछ व्यक्तिगत सेवाओं के सम्बन्ध में ऐसी मूल्य नीति अपनाई जाती है जिसकी सहायता से अधिक आय वाले व्यक्तियों से अधिक एवं कम आय वाले व्यक्तियों से कम मूल्य वसूल किया जा सके। उदाहरणार्थ विशिष्ट प्रोफेशन वाले व्यक्ति; जैसे-वकील या डॉक्टर अक्सर अपनी सेवाओं के लिए इसी प्रकार की मूल्य नीति का प्रयोग करते हैं।

(5) प्रतियोगिता की दशा के अनुसार मूल्य निर्धारण प्रतिस्पर्द्धात्मक स्थिति में सफलता प्राप्त करने में मूल्य नीति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यदि मूल्य नीति प्रतिस्पद्धत्मिक स्थिति को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाये तो संस्था अधिक लाभ प्राप्त करने के अपने उद्देश्यों में सफल हो सकती है।

(6) फर्म का दीर्घकालीन कल्याण-मूल्य नीति का उद्देश्य यह भी होता है कि ऐसे मूल्य निश्चित करना जिससे कि सम्भावित प्रतियोगी उस व्यवसाय में प्रवेश करने के लिए आकर्षित न हो तथा फर्म विद्यमान प्रतिस्पर्द्धा में सफलता प्राप्त कर सके।

मूल्य नीतियों के प्रकार (Types of Pricing Policies)

मूल्य नीति वे निर्देशांकाएँ होती है जिनके आधार पर एक संस्था द्वारा अपनी वस्तु का मूल्य निश्चित किया जाता है। वर्तमान समय में एक फर्म अपनी वस्तु का मूल्य निर्धारित करने के लिए अग्रलिखित में से कोई एक या अधिक मूल्य जीतियों का अनुसरण कर सकती है

(1) प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने वाली नीति-इस प्रकार की कीमत नीति के अन्तर्गत एक फर्म अपनी वस्तु की कीमत प्रायः प्रतिस्पद्धियों की कीमत के अनुसार ही तय करती है जिससे कि कीमतविहीन प्रतिस्पर्धा का सामना किया जा सके।

(2) प्रतिस्पर्द्धा से ऊँची कीमत का निर्धारण नीति-इस नीति का प्रयोग कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही किया जा सकता है। प्रायः कुछ क्रेता वस्तु की कीमत को ही वस्तु की किस्म या गुण का प्रतीक मानते हैं। उनकी यह धारणा रहती है कि यदि वस्तु की कीमत अधिक है तो वस्तु अच्छी होगी। अतः वस्तु की कीमत प्रतिस्पद्धियों की कीमत से ऊँची होने पर उनके मनोविज्ञान पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। यह बात विशेषकर उन वस्तुओं पर अधिक लागू होती है जो प्रतिष्ठावान वस्तुएँ होती हैं या जिन वस्तुओं के तकनीकी गुणों और विशेषताओं की पहचान करना सामान्य क्रेताओं के लिए कठिन होता है अतः अपनी वस्तु की उच्च गुणों एवं विशेषता वाली सिद्ध करने के लिए कभी-कभी प्रतिस्पर्द्धा से ऊँची कीमत • निर्धारण करने की नीति अपनाई जाती है।

(3) प्रतिस्पर्द्धा से निम्न कीमत निर्धारित करने वाली नीति-कुछ निर्माता या उत्पादक प्रतिस्पर्द्धा से कम कीमत निर्धारित करने की नीति अपनाते हैं। उसका कथन है कि वस्तु की कम कीमत निर्धारित करके आसानी से प्रतिस्पर्द्धा का सामना किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, विज्ञापन के अभाव या इस पर कम व्यय, निम्न लाभ सीमा प्राप्त करने की इच्छा, बड़े पैमाने के उत्पादन की मितव्ययिताएँ प्राप्त करने के लिए भी वस्तु की कम कीमत निर्धारित की जाती है।

(4) लागत सम्बन्धी नीतियाँ-अनेक कम्पनियाँ कीमत और लागत के सम्बन्ध के आधार पर अपनी वस्तु की कीमत निर्धारित करती हैं। दीर्घकाल के लिए ऐसी कीमत नीति अपनानी चाहिए जिससे कि सभी लागतों को वसूल किया जा सके जबकि अल्पकाल के लिए यह आवश्यक नहीं है कि अल्पकाल की सभी लागतों को वसूल किया जाये, यदि मन्दी का समय है या बहुत प्रतिस्पर्द्धा है तो अल्पकाल में परिवर्तनशील लागतों के आधार पर भी कीमत निर्धारित की जा सकती है।

(5) कीमत विभेद नीति-कभी-कभी वस्तु की कीमत निर्धारण के लिए कीमत विभेद नीति भी अपनायी जाती है। इस नीति में कीमत विभेद क्रय की मात्रा, ग्राहकों की प्रवृत्ति, ग्राहकों की भौगोलिक स्थिति, बाजार स्थिति आदि के आधार पर किया जाता है, जैसे परिमाण या मात्रा छूट, नकद छूट, छूट, गैर मौसमी छूट तथा भौगोलिक छूट।

(6) परम्परागत कीमतों का अनुसरण वाली नीति-कुछ वस्तुओं के लिए परम्परागत कीमतों का प्रयोग किया जाता है; जैसे-एक टॉफी की कीमत 50 पैसे ऐसी कीमतों से विक्रेता एवं क्रेता दोनों ही परिचित रहते हैं। ऐसी कीमतों में परिवर्तन का उपभोक्ता विरोध करते हैं। अतः ऐसी वस्तुओं की कीमत में परिवर्तन की अपेक्षा वस्तु के आकार या किस्म में परिवर्तन किये जाते हैं।

(7) पुनः विक्रय कीमत अनुरक्षण-साधारणतः निर्माताओं की कीमत पर नियन्त्रण उस समय तक ही रहता है जब तक वे मध्यस्थों को वस्तु का विक्रय करते हैं परन्तु कुछ निर्माता मध्यस्थों द्वारा अन्तिम उपभोक्ता की वस्तुएँ विक्रय करते समय कीमतों पर नियन्त्रण रखना चाहते हैं। ऐसी कीमत नीति को पुनः विक्रय कीमत अनुरक्षण कहते हैं। निर्मातागण मध्यस्थों द्वारा पुनः विक्रय के समय कीमत नियन्त्रण दो प्रकार से कर सकते हैं प्रथम सम्भावित पुनः विक्रय कीमत एवं द्वितीय सब्जियम द्वारा समर्थित पुनः विक्रय कीमत अनुरक्षण कीमत नीति प्रथम के अन्तर्गत सम्भावित कीमतों के लिए कीमत सूचियों का प्रयोग किया जाता है। ये सूचियाँ मध्यस्थों का मार्गदर्शन करती हैं। इन्हीं के आधार पर मध्यस्थों को दी जाने वाली बाकी छूटों की गणना की जाती है। दूसरी विधि के अनुसार निर्धारित की गई कीमतों का दृढ़ता से पालन किया जाता है। मध्यस्थों की उस कीमत में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं होता है।

(8) एक समान सुपुर्दगी मूल्य नीति- इस नीति के अनुसार विक्रेता द्वारा पास एवं दूर के सभी ग्राहकों से एक-सा मूल्य लिया जाता है। इसका अर्थ यह है कि विक्रेता द्वारा मूल्य को निश्चित करते समय वस्तु का मूल्य एवं परिवहन व्यय शामिल कर लिया जाता है। डाकघर की दरें देश के अन्दर के लिए एक समान है, फलस्वरूप 1 रुपए का पोस्टकार्ड पड़ौसी को भी भेजा जा सकता है एवं हजारों किमी. दूर जम्मू एवं कश्मीर से कन्याकुमारी तक भी भेजा जा सकता है। यह नीति उन संस्थाओं के द्वारा अपनायी जाती है जो ऐसी वस्तुओं को बेचती है जिसे भेजने में व्यय कम होता है और जो क्रेता को इस प्रकार की सुविधा प्रदान करना चाहती हैं। इस नीति से पास के ग्राहकों को हानि होती है, किन्तु र वाले ग्राहकों को लाभ होता है। विक्रेता की दृष्टि से इस प्रकार की नीति इसलिए अच्छी होती है कि दूर वह इस नीति का अनुसरण करके मूल्य नियन्त्रण कर सकता है और अपने विज्ञापनों में वितरण मूल्यों का उल्लेख करके उपभोक्ताओं को पूरी जानकारी प्रदान कर सकता है।

(9) क्षेत्रीय सुपुर्दगी मूल्य नीति-इस नीति के अनुसार ग्राहकों को उनके स्थान के अनुसार क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है और जब एक ही क्षेत्र के विभिन्न स्थानों के ग्राहकों से आदेश प्राप्त होते हैं तो उन सभी से एक ही मूल्य लिया जाता है और एक ही दर से माल के परिवहन व्यय प्राप्त किए जाते है किन्तु विक्रेता द्वारा परिवहन व्ययों का भुगतान विभिन्न स्थानों के लिए भिन्न-भिन्न किया जाता है।

उदाहरण के लिए, यदि किसी विक्रेता ने पूरे उत्तर प्रदेश को एक क्षेत्र मान लिया है और विक्रेता स्वयं मेरठ में है तो बनारस, आगरा, कानपुर आदि स्थानों के ग्राहकों से आदेश प्राप्त होने पर उनसे मूल्य एवं एक निश्चित परिवहन व्यय किया जाएगा। लेकिन विक्रेता के तो रेलवे या ट्रक मालिक को भिन्न-भिन्न किराया देना होगा। इस नीति को अपनाने से एक क्षेत्र में एक मूल्य रखे जा सकते हैं।

(10) आधारित केन्द्र मूल्य नीति- यह मूल्य निर्धारण की वह नीति है जिसमें विक्रेता या निर्माता क्रेता से वस्तुओं के मूल्य दो रूपों में लेता है-(i) वस्तु का मूल्य उसके निर्माण या संग्रह के स्थान पर, तथा (ii) क्रेता के स्थान पर तक के परिवहन व्यय ‘किराया पुस्तक’ के अनुसार किराया पुस्तक एक पुस्तक होती है जिसमें विभिन्न शहरों या स्थानों के नाम दिए जाते हैं और साथ ही उन स्थानों के आगे यह किराया भी लिखा रहता है जिसको क्रेता से लिया जाएगा। इस किराए के निर्धारण का आधार वह किराया होता है जो वास्तव में परिवहन संस्थाएँ किराए के रूप में वसूल करती है लेकिन इसके लिए कुछ स्थान ही चुने जाते हैं जहाँ से किराए की गणना की जाती है। इन स्थानों को Basing points कहते हैं। वास्तव में यह वे स्थान होते हैं जहाँ पर अन्य प्रतियोगी संस्थाएँ वस्तुओं का निर्माण कर रही है या उनका संग्रह कर रही हैं लेकिन आवश्यक नहीं है कि वे सभी स्थान निर्माण स्थान या संग्रह स्थान हों। इस नीति की सभी प्रतियोगी संस्थाएँ मिलकर ही अपनाती है और उन्हीं के द्वारा ‘किराया पुस्तक’ बनायी जाती है। यह नीति नए उद्योगपतियों को उस क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए कठिनाई पैदा कर देती है।

(11) उत्पादन केन्द्र मूल्य नीति-अधिकांश संस्थाओं द्वारा इस नीति का ही अनुसरण किया जाता है, “इस नीति को अपनाने वाली संस्था वस्तु की सुपुर्दगी फैक्ट्री के दरवाजे या गोदाम पर करती है और वहाँ से गाड़ी में चढ़ाने व आगे ले जाने का व्यय क्रेता वहन करता है।” इस प्रकार के मूल्य फैक्ट्री मूल्य कहलाते हैं। वस्तु को ले जाने की जोखिम क्रेता की होती है। विक्रेता तो माल की सुपुर्दगी अपने गोदाम या फैक्ट्री के दरवाजे पर करके आगे के उत्तरदायित्व से बच जाता है। कुछ विद्वान इस नीति को F.O. B. (Factory Price Policy) और मूल्यों को F.O.B. (Factory or Mill Price) कहते हैं। इस नीति में क्रेताओं के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता है और संसार के सभी देशों में यह नीति सामान्य रूप से पायी जाती है।

(12) किराया-सोख मूल्य नीति-“मूल्य निर्धारण की यह यह नीति है जिसमें विक्रेता या निर्माता 5 किराए को अपने ऊपर से लेता है अर्थात् वह उसे सहन करता है, इसलिए इसको किराया-सोख मूल्य नीति कहते हैं। यह नीति बाजार के विस्तार के समय अपनायी जाती है और कुछ विशेषतः उन क्रेताओं को लाभ देने के लिए जो प्रतियोगी संस्थाओं के निकट है। जैसे- यदि सीमेण्ट कर फैक्टरियाँ ग्वालियर (म.प्र.) व मिर्जापुर (उ. प्र.) में है और उत्पादन एवं वितरण पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है तथा वस्तु की क्वालिटी मूल्य एक है और यदि आगरा (उ.प्र.) में सीमेण्ट का खरीददार है तो उसके लिए ग्वालियर सिर्फ 120 किलोमीटर दूर है जबकि मिर्जापुर 800 किलोमीटर से अधिक ? वह ग्वालियर से ही सीमेण्ट खरीदना पसन्द करेगा क्योंकि उसका परिवहन व्यय कम पड़ेगा। लेकिन मिर्जापुर फैक्ट्री आगरा वाले खरीददार को यह प्रस्ताव कर सकती है कि वह वस्तु का मूल्य तथा आगरा से ग्वालियर तक का किराया दे। इसका अर्थ यह हुआ कि बाकी का किराया मिर्जापुर फैक्ट्री वहन करेगी। इस प्रकार यह नीति अपनायी जा सकती है। इस नीति से प्रतियोगिता सुदृढ़ होती है और एकाधिकार पनप नहीं पाता है।

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