विज्ञापन वर्तमान प्रतिस्पर्द्धा युग में व्यवसाय का एक आवश्यक अंग बन गया है। वस्तुतः युग विज्ञापन का युग है।
वर्तमान विज्ञापन शब्द वि + ज्ञापन के योग बना है। ‘वि’ का अर्थ ‘विशेष’ और ‘ज्ञापन’ का अर्थ ‘सूचना देने’ या ‘जानकारी देने से लगाया जाता है। इस प्रकार विज्ञापन का आशय उपभोक्ताओं को वस्तुओं एवं सेवाओं के सम्बन्ध में विशेष सूचना या जानकारी देने से है, ताकि वे उन्हें क्रय करने के लिए आकर्षित हो सकें। व्यापक शब्दों में विज्ञापन का आशय ऐसे लिखित, मौखिक, चित्रित या दृश्य अवैयक्तिक संदेशों से है, जो लोगों में वस्तु सेवा क्रय करने के लिए प्रेरित करते हैं तथा जिन्हें टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, पोस्टर्स, समाचार पत्र पत्रिकाओं आदि साधनों द्वारा सामान्य जनता तक पहुँचाया जाता है इसके लिए विज्ञापनकर्ता को कुछ भुगतान करना होता है। (1) मैसन व रय (Mason and Rath) के अनुसार, “विज्ञापन बिना वैयक्तिक विक्रयकर्ता के विक्रय कला है।”
(2) रिचार्ड बसकिर्क (Richard Buskirk) के अनुसार, “विज्ञापन एक परिचय प्राप्त प्रायोजक द्वारा विचारों, वस्तुओं या सेवाओं के अवैयक्तिक प्रस्तुतीकरण या प्रवर्तन का एक ढंग है जिसका कि भुगतान किया जाता है।”
(3) लस्कर (Lasker) ने विज्ञापन को मुद्रण के रूप में विक्रय कला’ कहा है।
(4) शेल्डन (Sheldon) के अनुसार, “विज्ञापन ऐसी व्यावसायिक शक्ति है जिसके अन्तर्गत मुद्रित शब्दों द्वारा विक्रय वृद्धि में सहायता मिलती है, ख्याति का निर्माण होता है तथा साख बढ़ती है।”
(5) वुड (Wood) के अनुसार, “विज्ञापन जानने, स्मरण रखने तथा करने की एक विधि है।”
(6) व्हीलर (Wheeler) के अनुसार, “विज्ञापन लोगों को क्रय करने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से विचारों, वस्तुओं तथा सेवाओं का अवैयक्तिक प्रस्तुतीकरण है जिसके लिए भुगतान किया जाता है।”
उपरोक्तानुसार यह निष्कर्ष निकलता है कि विज्ञापन एक प्रकार के अवैयक्तिक सन्देशों से है जो जनता को वस्तुओं सेवाओं व विचारों की सूचना देता है तथा इस सूचना को देने के लिए भुगतान किया जाता है।
आधुनिक प्रतिस्पर्द्धा के युग में विज्ञापन का महत्वपूर्ण स्थान है। विज्ञापन के द्वारा नयी-नयी वस्तुओं का परिचय उपभोक्ताओं से कराया जाता है, ग्राहकों को वस्तुएँ खरीदने के लिए प्रेरित किया • जाता है, वस्तु की माँग बढ़ाकर बड़े पैमाने पर उत्पादन सम्भव होता है जिससे उत्पादक और उपभोक्ता दोनों प्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित होते हैं। उत्पादक को बड़े पैमाने के उत्पादन की मितव्ययितायें मिलती हैं और उपभोक्ताओं को सस्ती एवं प्रमापित वस्तुयें मिलती हैं। अतः विज्ञापन वस्तु की माँग उत्पन्न करता है, माँग में वृद्धि करता है। इसलिए यह कहना है कि विज्ञापन करने से लाभ होता है, पूर्णरूपेण सत्य है। इसी कारण यह तथ्य भी सत्य प्रतीत होता है कि “विज्ञापन पर किया गया व्यय विनियोग होता है, व्यर्थ नहीं।” विज्ञापन के द्वारा सभी वर्ग लाभान्वित होते हैं। इसको निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
(I) निर्माताओं को लाभ (Advantages to Manufactures) विज्ञापन से निर्माता को प्राप्त होने वाले लार्भों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
(1) नयी वस्तुओं की माँग उत्पन्न करना-निर्माता अपनी नयी वस्तु का विज्ञापन कराके, ग्राहकों को उस वस्तु से अवगत कराके अपनी वस्तु की माँग उत्पन्न करते हैं।
(2) वस्तु की बिक्री में वृद्धि-विज्ञापन का मुख्य उद्देश्य वस्तु की बिक्री बढ़ाना है। बड़े पैमाने पर उत्पादन करके उसको बड़े पैमाने पर बेचने के लिए विज्ञापन का सहारा लिया जाता है। विज्ञापन के द्वारा नये ग्राहक आकर्षित होते हैं और निरन्तर विज्ञापन कराने से पुराने ग्राहकों के वस्तु के आकर्षण बने रहते हैं। विज्ञापन के द्वारा वस्तु के नये-नये प्रयोगों को समझाकर ग्राहकों में उत्सुकता उत्पन्न हो जाती है। इन सबका प्रभाव यह होता है कि वस्तु की बिक्री में वृद्धि हो जाती है।
(3) वस्तुओं की माँग में स्थिरता विज्ञापन वस्तुओं की माँग में होने वाले मौसमी परिवर्तनों को कम कर देता है। यह विज्ञापन का ही परिणाम है कि चाय की बिक्री गर्मियों के मौसम में भी होती है।
(4) शीघ्र बिक्री तथा कम स्टॉक-सुव्यवस्थित विज्ञापन के द्वारा बाजार में अनुकूल वातावरण बन जाता है। वस्तु की बिक्री तेजी से होने लगती है। वस्तु की शीघ्र बिक्री हो जाने के कारण व्यापारी को उस वस्तु का अधिक समय के लिए स्टॉक नहीं रखना पड़ता है।
(5) प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने में सहायक-विज्ञापन के द्वारा वस्तु के प्रति जनता की माँग को स्थायी बनाया जा सकता है। यदि कोई प्रतिस्पर्धी हमारी वस्तु के प्रति गलत तथ्यों को प्रचार करता है। तो उनका खण्डन किया जा सकता है। इसके द्वारा अपनी वस्तु के गुण और प्रयोग को समझाया जा सकता है। विज्ञापन के द्वारा ग्राहकों को यह समझाया जा सकता है कि उसकी वस्तु अन्य वस्तुओं से किस प्रकार श्रेष्ठ है। अतः प्रतिस्पर्द्ध में सफलता प्राप्त करने में विज्ञापन महत्वपूर्ण योगदान देता है।
(6) विक्रेताओं को सहयोग-विज्ञापन विक्रेताओं के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है। जब विक्रेता ग्राहक से मिलता है तो उसे ग्राहक को वस्तु के सम्बन्ध में प्रारम्भिक बातें नहीं बतानी पड़ती है क्योंकि ग्राहक उन प्रारम्भिक बातों से पहले से ही परिचित होता है।
(7) अच्छे मध्यस्यों एवं कर्मचारियों की प्राप्ति-विज्ञापन के द्वारा अच्छे मध्यस्थ और कर्मचारियों को प्राप्त किया जा सकता है। जिस वस्तु का विज्ञापन निरन्तर होता रहता है, विक्रेता उस वस्तु को अपने पास रखना अधिक पसन्द करते हैं क्योंकि उस वस्तु की माँग अधिक होती है और ऐसी वस्तु को बेचने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता है। योग्य कर्मचारी भी उस संस्था में कार्य करना अधिक पसन्द करते हैं जिसकी वस्तु अधिक लोकप्रिय हो।
(8) वितरण एवं उत्पादन लागत में कमी-विज्ञापन से बिक्री में वृद्धि होती है जिससे दो लाभ होते हैं, प्रथम-वस्तु का वितरण लागत (जिसमें विज्ञापन भी सम्मिलित होता है) बिक्री की मात्रा में बढ़ जाने के कारण प्रति इकाई कम हो जाती है। द्वितीय-अधिक बिक्री होने पर बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रति इकाई उत्पादन लागत कम आती है।
(9) संस्था की ख्याति में वृद्धि-विज्ञापन के द्वारा वस्तु एवं संस्था दोनों का नाम लोकप्रिय हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह अपनी सहायक उत्पादन भी बाजार में बेचने में सफल हो जाती है। (10) कर्मचारियों को अधिक कार्य करने के लिए प्रेरणा-विज्ञापन के द्वारा वस्तु की बिक्री में वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप संस्था की स्थिति सुदृढ़ होती है। संस्था के कर्मचारियों में गर्व की भावना बढ़ जाती है और वे अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित होते हैं।
(II) उपभोक्ताओं को लाभ (Advantages to Consumers) विज्ञापन से उपभोक्ताओं या ग्राहकों को प्राप्त होने वाले लाभों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
(1) नव-निर्मित वस्तुओं का ज्ञान-विज्ञापन के द्वारा उपभोक्ताओं को नयी-नयी वस्तुओं की जानकारी मिलती है। इस जानकारी के आधार पर वे नयी-नयी वस्तुओं का उपयोग करके जीवन को सुखमय बना सकते हैं।
(2) वस्तुओं को खरीदने में सुगमता ग्राहकों को विज्ञापन के द्वारा वस्तु के सम्बन्ध में पहले से ही पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अतः उन्हें वस्तु के चुनाव करने में सुविधा रहती है। विज्ञापन में प्रायः वस्तु के मूल्य और विक्रेताओं के नाम भी लिखे रहते हैं, जिस कारण उन्हें वस्तु के अधिक मूल्य भी नहीं देने पड़ते हैं और विक्रेताओं की खोज भी नहीं करनी पड़ती।
(3) अच्छी किस्म की वस्तुओं की प्राप्ति निर्माता अपनी वस्तु के विज्ञापन करते समय उसके। विशेष गुणों का उल्लेख भी करता है, और उन गुणों के बनाये रखने के लिए हर सम्भव प्रयास भी करता है, क्योंकि उसे यह भय रहता है कि कहीं ग्राहकों का उसकी वस्तु के प्रति विश्वास न उठ जाये।
अतः उपभोक्ताओं को अच्छी किस्म की वस्तुयें प्राप्त होती रहती हैं। (4) उपभोक्ताओं के ज्ञान में वृद्धि-विज्ञापन द्वारा वस्तुओं के नये-नये उपयोग समझाये जाते हैं, जिनसे उपभोक्ताओं के ज्ञान में वृद्धि होती है। (III) समाज का लाभ (Advantages of Society) विज्ञापन से समाज को प्राप्त होने वाले लाभों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
(1) अधिक रोजगार बढ़ाने में सहायक-विज्ञापन से रोजगार के अधिकाधिक अवसर प्राप्त होते हैं। विज्ञापन हेतु कलाकारों, लेखकों, विशेषज्ञों एवं अन्य व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती है। फलस्वरूप विज्ञापन इन लोगों की जीविका का एकमात्र साधन बन गया है। साथ ही देश में विज्ञापन एजेन्सियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, क्योंकि इनके द्वारा विज्ञापन कराने से अधिक आकर्षक एवं मितव्ययी होता है।
(2) आशावादी समाज का निर्माण-विज्ञापन के द्वारा समाज के सदस्यों को नयी-नयी वस्तुओं की जानकारी मिलती है। उन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित होते हैं। इस प्रकार आशावादी समाज का निर्माण होता है।
(3) समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं की आर्थिक सहायता- समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं को विज्ञापन कराने वालों से बहुत आमदनी होती है। यही कारण है कि समाचार पत्र और पत्रिकायें बहुत कम कीमत पर समाज के सदस्यों को प्राप्त हो जाती हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विज्ञापन कराने से लाभ होता है। अतः विज्ञापन पर किया गया व्यय एक विनियोग है जिसका लाभ निर्माता, मध्यस्यों, उपभोक्ता एवं समाज के सभी वर्गों को मिलता है।
विज्ञापन के दोष (Disadvantages of Advertisement)
विज्ञापन के अनेक लाभ होते हुए भी इसे दोष रहित नहीं किया जा सकता। विज्ञापन के दोषों के कारण तो कुछ लोगों की यह धारणा बन गयी है कि “विज्ञापन पर किया गया खर्च व्यर्थ होता है।” इस कथन की पुष्टि के लिए अग्रलिखित तर्क दिये जा सकते हैं
(1) एकाधिकार का प्रोत्साहन-कुछ निर्माता अपनी वस्तु का निरन्तर विज्ञापन कराके बाजार पर एकाधिकार जमा लेते हैं और उपभोक्ताओं से अधिक कीमत वसूल करके उनका शोषण करते हैं।
(2) ऊँचे मूल्य-विज्ञापन पर किये गये व्यय को वस्तु की लागत में जोड़ दिया जाता है जिसके परिणामस्वरूप वस्तुओं की कीमत बढ़ जाती है और उपभोक्ताओं पर इसका अनावश्यक भार पड़ता है।
(3) धन का अपव्यय-विज्ञापन उपभोक्ता को उन वस्तुओं को खरीदने के लिए प्रेरित करता है जिनकी उन्हें आवश्यकता नहीं है या जो उसके स्तर को देखते हुए विलासिता की हैं। इस प्रकार ऐसी वस्तुओं पर उसके द्वारा किया गया खर्च अपव्यय ही होता है। अतः विज्ञापन से विलासिता का विकास होता है।
(4) मिथ्या प्रचार-विज्ञापन में अधिकांशतः मिथ्या वर्णन होता है, असत्य कथन होता है तथा स्वयं विज्ञापन कपट पर आधारित होता है। विज्ञापन करने वाले अधिक मूल्यवान वस्तुओं को कम मूल्य पर देने का विज्ञापन करते हैं। उपभोक्ता ऐसे विज्ञापनों के चक्कर में पड़ जाता है और चंचल मन के कारण सन्तुलन खो बैठता है जिसका परिणाम यह होता है कि उपभोक्ता ठग जाता है।
(5) अश्लील विज्ञापनों से हानियाँ-कुछ विज्ञापन इस प्रकार के होते हैं कि उनमें लड़कियों के नग्न या अर्द्धनग्न फोटो छपे रहते हैं या स्त्रियों का हाव-भाव विलासितापूर्ण दिखाया जाता है। ऐसे चित्र जनता को आकर्षित करते हैं तथा उस पर इन अश्लील विज्ञापनों से अनैतिक प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि विवेकशील व्यक्ति इसका विरोध करते हैं।
(6) फैशन परिवर्तन-विज्ञापन फैशन में परिवर्तन करता है जिसका प्रभाव उपभोक्ता व मध्यस्थ दोनों पर पड़ता है। उपभोक्ता को फैशन वाली वस्तु खरीदने में ज्यादा व्यय करना पड़ता है तथा मध्यस्थ को फैशन में परिवर्तन होने से हानि होती है क्योंकि उसकी वस्तु या तो बिकती नहीं है या कम मूल्य पर बेचनी पड़ती है।
(7) अनार्थिक प्रतिस्पर्द्धा का जन्म विज्ञापन प्रतिस्पर्द्धा को जन्म देता है जिससे मूल्य कम करने पड़ते हैं। वस्तु के कम मूल्य वस्तु की क्वालिटी को गिराते हैं।
(8) राष्ट्रीय साधनों का अपव्यय विज्ञापन राष्ट्रीय साधनों का अपव्यय करता है। फैशन परिवर्तन या मॉडल परिवर्तन से ग्राहक नयी वस्तु खरीदता है, पुरानी नहीं। यदि किसी प्रकार पुराना मॉडल या पुराने फैशन का माल स्टॉक में रह जाता है तो यह बहुत कम मूल्य पर बिकता है जिससे राष्ट्रीय साधनों का अपव्यय होता है।
(9) निर्णयों में कठिनाई जब एक ही प्रकार की कई वस्तुओं का विज्ञापन होता है तो ग्राहक को निर्णय लेने में कठिनाई होती है, जैसे-जब फोरहन्स, कोलगेट, बिनाका, नीम, आदि टूथपेस्टों का विज्ञापन एक ग्राहक देखता है तो उसको निर्णय लेने में कठिनाई होती है कि वह किस ब्राण्ड को खरीदे। इस प्रकार विज्ञापनों के कारण कभी-कभी उपभोक्ता इस असमंजस में पड़ जाता है कि वह किस वस्तु का क्रय करे क्योंकि सभी निर्माता अपनी वस्तु की प्रशंसा अलग-अलग ढंग से करते हैं। कभी-कभी उपभोक्ता विज्ञापन से प्रभावित होकर ऐसी वस्तु को खरीद लेता है जो कि उसके लिए अनुपयोगी है।
(10) शहरों के प्राकृतिक सौन्दर्य का विनाश-दीवारों, चौराहों पर होने वाले विज्ञापनों से शहर का प्राकृतिक सौन्दर्य ही नष्ट हो जाता है क्योंकि शहरों में जगह-जगह पोस्टर और साइन बोर्ड दिखाई देते हैं।
(11) सामाजिक बुराइयों को प्रोत्साहन-बहुत-से विज्ञापनों द्वारा बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि को आधुनिकता का प्रतीक बताया जाता है। ऐसे विज्ञापनों से प्रभावित होकर अनेक व्यक्ति इन दुर्व्यसनों को अपना लेते हैं और ये फिर आसानी से नहीं छूटते हैं। उपर्युक्त दोषों का अध्ययन करने के पश्चात् तो यह कहा जा सकता है कि विज्ञापन पर किया व्यय व्यर्थ है लेकिन वास्तविकता इससे बहुत भिन्न है, क्योंकि उपर्युक्त दोषों का यदि गहारई से
अध्ययन किया जाये तो ज्ञात होगा कि ये दोषा विज्ञापन के नहीं है, अपितु विज्ञापन को दुरुपयोग करने के कारण हैं। यदि विज्ञापन के दुरुपयोगों को रोका जाये तो विज्ञापन से होने वाली हानियों को काफी कम किया जा सकता है और ऐसी स्थिति में विज्ञापन व्यावसायिक जगत् के लिए वरदान सिद्ध होगा। क्योंकि बिना विज्ञापन का सहारा लिये कोई भी व्यवसायी सफलता को अपनी मंजिल पर नहीं पहुँच सकता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं
(1) झूठे व कपटपूर्ण विज्ञापन-एक आलोचना यह है कि झूठे विज्ञापन बहुत किये जाते हैं। जिससे जनसाधारण को हानि होती है। इसके उत्तर में यह कहा जाता है कि “काठ की हाँडी एक बार चढ़ती है।” यदि कोई विक्रेता झूठा विज्ञापन भी करता है तो उसके द्वारा ग्राहकों को एक बार ही फैंसाया जा सकता है इससे अधिक नहीं। फिर यह कमी विज्ञापन की स्वयं की तो नहीं है, यह तो व्यापारियों की है। अतः विज्ञापन कला को बदनाम नहीं किया जाना चाहिए।
(2) अर्द्ध-प्रयुक्त एवं अप्रयुक्त वस्तुएँ विज्ञापन द्वारा फैशन तथा रीतियों में परिवर्तन कर दिया जाता है जिसके प्रभाव से ग्राहकों द्वारा अर्द्ध-प्रयुक्त वस्तुओं को फेंककर नवीन वस्तुएँ क्रय कर ली जाती हैं। इससे पुराने स्टॉक भी व्यर्थ हो जाते हैं जिससे वस्तु की लागत बढ़ जाती है। वास्तव में, भारत जैसे देश में तो यह अभी सम्भव नहीं है। यदि कोई वस्तु फैशन परिवर्तन के कारण अर्द्ध-प्रयुक्त या स्टॉक में रह जाती है या उसे भी बेचा जा सकता है और उसमें उपयोगिता बनी रहती है।
(3) नवीन वस्तुएँ-नवीन वस्तुओं के निर्माण की रचना विज्ञापन के माध्यम से ही दी जाती है। इससे ग्राहकों में वस्तु क्रय करने के लिए इच्छा जाग्रत की जाती है और वे जब नवीन वस्तुएँ खरीदते हैं तो उनका रहन-सहन का स्तर ऊपर उठता है। इससे सैकड़ों व्यक्ति उस वस्तु के उत्पादन आदि में लग जाते हैं राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ता है तथा साधनों का सदुपयोग होता है। इस प्रकार विज्ञापन करना उचित ही है।
(4) सूचना देना-विज्ञापनों द्वारा ग्राहकों को सूचित किया जाता है जिसके आधार पर क्रय कर सकते हैं। इस प्रकार विज्ञापन तो उनके लिए हानिकारक न होकर लाभकारी है।
कुछ विद्वान विज्ञापनों को निर्थक एवं बर्बादी मानते हैं। ऐसे विद्वानों पर प्रो. आर. एस. डॉवर (R. S. Dover) प्रहार करते हुए लिखते हैं कि बर्बादी तो लगभग सभी वस्तुओं में है। क्या आवश्यकता है कि शरीर ढकने के लिए मूल्यवान सिल्क, कश्मीरी शाल तथा सुन्दर ऊनी कपड़े खरीदे जाएँ। हम मोटे कपड़े पहनकर सन्तुष्ट हो सकते हैं। ये मोटे कपड़े अधिक चलते हैं। सिनेमागृहों, नाट्यशालाओं, जलपानगृहों व भोजनालयों को क्यों न बन्द कर देना चाहिए व जूते के स्थान पर काठ की खड़ाऊ पहननी चाहिए।
इस विवेचना के आधार पर यह कह सकते हैं कि विज्ञापन लाभदायक है। प्रो. मार्शल (Marshall) ने भी रचनात्मक विज्ञापन को उचित बताया है क्योंकि ऐसा विज्ञापन वस्तुओं के सम्बन्ध में जानकारी देता है। प्रो. पीगू (Pigou) एवं चैम्बरलिन (Chamberllin) ने भी सूचनात्मक विज्ञापन को सही बताया है।