किसी उत्पाद की कीमत निर्धारण करने के लिए आवश्यक कार्य विधि का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

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फर्म द्वारा उत्पन्न की जा रही वस्तुओं का मूल्य निर्धारण करना एक कठिन कार्य है। वास्तव में मूल्य निर्धारण व्यावसायिक प्रबन्ध और लोकहित के बीच का एक क्षेत्र है। इन दोनों के उद्देश्यों एवं हितों में समन्वय स्थापित करने के पश्चात् मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया की व्यावहारिक समस्याएँ सामने आती हैं। एक फर्म एक ही वस्तु का उत्पादन तो करती नहीं है, किन्तु वह एक साथ अनेक वस्तुओं का उत्पादन करती है अतः ऐसी दशा में मूल्य निर्धारण और भी कठिन हो जाता है। मूल्य निर्धारण की कोई एक सर्वमान्य सामान्य प्रक्रिया नहीं है जो सबके द्वारा अपनायी जाती है। इसके न होने के कारण फर्मों की अपनी-अपनी विशेषताएँ और लागतों के बदलते व्यवहार तथा उसमें एकरूपता का अभाव होता है। लेकिन फिर भी वस्तुओं के मूल्य निर्धारित करने में सामान्यतः निम्न पद्धति या प्रक्रिया का पालन किया जाता है

(1) माँग का अनुमान लगाना-उत्पाद का मूल्य तय करते समय इसकी माँग का अनुमान लगाना चाहिए। नये उत्पाद की अपेक्षा वर्तमान चालू उत्पाद का अनुमान आसान है। विक्रेता इस बात के प्रति अनिश्चित रहता है कि नये उत्पाद की कोई माँग होगी भी या नहीं। माँग का अनुमान लगाने में दो नये कदम उठाये जाते हैं प्रथम, उत्पाद का अनुमानित मूल्य क्या है ? अनुमानित मूल्य वह मूल्य है जिसके ग्राहक जाने-अनजाने मूल्यांकित करते रहते हैं अर्थात् वे उत्पाद को कितना उपयोगी समझते हैं। दूसरा, विभिन्न मूल्यों पर बिक्री की मात्रा कितनी होगी इसका अनुमान लगाया जाता है।

(2) प्रतिस्पर्द्धा का अनुमान लगाना- मूल्य निर्धारण पर वर्तमान तथा भावी तीनों प्रकार की प्रतिस्पर्द्धाओं का प्रभाव पड़ता है। यहाँ तक कि बिल्कुल ही नयी विकसित वस्तुएँ भी प्रतिस्पर्द्धा से मुक्त नहीं होती है। यदि उत्पादन अथवा विक्रय सरल है तो प्रतिस्पर्धा कड़ी होगी। समान स्तरीय तथा प्रतिस्थापक वस्तुओं से हो सकने वाली प्रतिस्पर्द्धा पर भी ध्यान देना आवश्यक है।

(3) अनुमानित बाजार भाग का पता लगाना-बाजार का कितना भाग कम्पनी प्राप्त करने की आशा रखती है इस बात का पता लगाया जाना चाहिए। एक फर्म जो बाजार का बड़ा भाग प्राप्त करना चाहती है, उस फर्म की अपेक्षा जो अपने बाजार भाग से सन्तुष्ट है, अलग मूल्य निर्धारित करेगी। बाजार का भाग संस्था की उत्पादन क्षमता, प्लाण्ट के विस्तार की लागत तथा प्रतिस्पर्द्धा से प्रभावित होता है। यदि कम्पनी की प्लाण्ट क्षमता अपर्याप्त है तो बड़े बाजार भाव की प्राप्ति का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि नये उत्पाद की कीमत कम रखी जाती है ताकि बाजार का विस्तार किया जा सके और बाजार उसके पक्ष में हो जाये, पर कम्पनी आदेशों की पूर्ति नहीं कर पायेगी। ऐसी देशा में यदि प्रबन्धक विस्तार के लिए उचित नहीं रखता है तो प्रारम्भिक लागत ऊँची रखी जानी चाहिए।

(4) उचित मूल्य तकनीक का चयन करना-उपरोक्त बातें निश्चित करने के पश्चात् उपक्रम के विपणन प्रबन्ध को एक उचित मूल्य तकनीक करनी चाहिए तथा उसका अनुसरण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में दो तकनीकें अधिक महत्वपूर्ण है

(i) मलाई उतारने की तकनीक इस तकनीक के अन्तर्गत नई वस्तु का उत्पादक जब तक प्रतिस्पर्धी बाजार में नहीं आता है तब तक वस्तु की ऊँची कीमत निर्धारित करता है। जब नये प्रतियोगी बाजार में आने लगते हैं तो वस्तु की कीमत कम कर दी जाती है। इसके ही मलाई उतारना कहते हैं।

(ii) कम प्रवेशक मूल्य नीति- यह नीति प्रारम्भिक उच्चतम मूल्य नीति के ठीक विपरीत होती है। इस नीति के अन्तर्गत नई वस्तु की प्रारम्भिक अवस्था में नीची कीमत निर्धारित की जाती है जिससे कि वस्तु के बाजार का विकास हो सके और बाजार के अधिकतर भाग का अधिकार हो सके।

(5) कम्पनी की विपणन नीतियों पर विचार करना कम्पनी की विपणन नीति के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें आती हैं (i) उत्पाद नीतियाँ-उत्पाद नया अथवा पुराना है, नाशवान है या टिकाऊ है, उपभोक्ता उत्पाद है या औद्योगिक उत्पाद तथा कम्पनी के उत्पाद मिश्रण पर विचार करना चाहिए।

(ii) वितरण माध्यम-वस्तु वितरण के लिए अपनायी जाने वाली वितरण श्रृंखला, मध्यस्थों के प्रकार, इन मध्यस्थों के द्वारा लिया जाने वाला पारिश्रमिक, आदि वस्तु के मूल्य को प्रभावित करते हैं।

थोक तथा फुटकर विक्रेता दोनों के लिए भी अलग-अलग मूल्य निश्चित किये जाते हैं। मध्यस्थों का प्रतिफल भी आखिरकार मूल्य पर ही निर्भर होता है। अतः इस बात पर भली प्रकार विचार कर लेना चाहिए। यदि वस्तु कम मूल्य क्षमता वाली है तो उसके लिए महँगी वितरण व्यवस्था बिल्कुल नहीं अपनानी चाहिए।

(iii) प्रवर्तन सम्बन्धी नीतियाँ- यदि प्रवर्तन सम्बन्धी कार्य अधिकांशतया फुटकर विक्रेताओं को छोड़ दिया जाता है तो अपने लिए वे अधिक लाभ का मार्जिन रखना चाहेंगे। इसके विपरीत यदि विक्रय प्रवर्तन एवं विज्ञापन आदि का कार्य स्वयं उत्पादक द्वारा ही किया जाना हो तो उन्हें उनके लिए अधिक मार्जिन रखने की आवश्यकता नहीं है।

(6) विशिष्ट मूल्य रखना सबसे अन्त में, वस्तु का एक निश्चित मूल्य रखा जाता है। मूल्य निश्चित करने के लिए कोई तकनीकी फॉर्मूला अथवा विधि नहीं है जिसके माध्यम से मूल्य रख दिये जायें। इनके लिए विस्तृत अनुभव की आवश्यकता है। लेकिन फिर भी यह ध्यान रखने की बात है कि जो भी मूल्य निश्चित किये जायें वह पूरी लागत वसूल करने वाले हों, उपक्रम को लाभ प्रदान करने वाले हों तथा उपभोक्ता को भी सरलता से देय हो तथा वह मध्यस्थों के लिए भी आकर्षक हों।

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